India On Litmus Test: अग्निपरीक्षा के दौर से गुजर रही भारत की कूटनीति, जानें क्यों अचानक ब्रिटेन से जर्मनी तक हुए खिलाफ?

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India On Litmus Test: अग्निपरीक्षा के दौर से गुजर रही भारत की कूटनीति, जानें क्यों अचानक ब्रिटेन से जर्मनी तक हुए खिलाफ?

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दुनिया में तेजी से बदलते सामरिक, आर्थिक और राजनीतिक परिवेश में अचानक भारत की कूटनीति कठिन अग्निपरीक्षा के दौर से गुजरने लगी है। कुछ दिनों पहले तक जहां, भारत मौजूदा वैश्विक परिवेश में सबसे बेहतर स्थिति में था तो वहीं अब देश के सामने कई मुश्किल परिस्थितियां पैदा हो गई हैं। अभी तक अमेरिका से लेकर ब्रिटेन और जर्मनी तक सब भारत के प्रति अपना झुकाव दिखा रहे थे, मगर हाल ही में सभी के रुख अचानक से बदलने लगे हैं। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (UNHRC) में उइगर मुसलमानों पर अमेरिका और पश्चिमी देशों की ओर से लाए गए प्रस्ताव पर चीन के खिलाफ वोट नहीं करके भारत ने सही किया या गलत?..... इन तमाम सवालों का जवाब आपको समझाएंगे। मगर आइए सबसे पहले आपको बताते हैं कि अचानक भारत के खिलाफ ये माहौल क्यों बनने लगा?...आखिर क्यों अमेरिका से लेकर जर्मनी और ब्रिटेन के सुर भारत के प्रति बदलने लगे?

अभी तक भारत दुनिया के क्षितिज पर एक ऐसे मुकाम पर है कि पूरी दुनिया को लग रहा कि ये देश सबसे अधिक फायदे में है। क्योंकि सभी देश भारत से उम्मीदें रख रहे हैं, भारत सबको दिशा दे रहा है, भारत की अहमियत बढ़ रही है, भारत का रुतबा बढ़ रहा है। सभी देश भारत की बात पर भरोसा कर रहे हैं, उसकी छवि तेजी से दुनिया के मानस पटल को आकर्षित कर रही है। यह सब कमाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वजह से है। मगर अब देशों को भारत की ऐसी छवि देखी नहीं जा रही। भारत की आत्मनिर्भरता और उसकी स्वतंत्र विदेश नीति से खासकर अमेरिका, चीन और पश्चिम देश हैरान व परेशान हैं। भारत कहीं सबको पीछे छोड़ते हुए ग्लोबल लीडर न बन जाए, इसकी चिंता भी सभी को सताने लगी है। इसलिए अब भारत के खिलाफ साजिश का दौर शुरू हो गया है।

भारत के प्रति क्या है अमेरिका की रणनीति

अमेरिका को भी लग रहा कि भारत ऐसी स्थिति में है कि उसको अभी सब तरफ से फायदा हो रहा। अमेरिका समेत अन्य सभी देश यह देख कर परेशान हैं और ये सभी देश अमेरिका के साथ मिले हैं। अमेरिका भारत के साथ दोस्ती जरूर दिखा रहा है, लेकिन वह इसमें अपना हित देख रहा है। इसमें भारत का कोई हित शामिल नहीं है। अमेरिका भारत के हित को प्रभावित कर रहा है। इधर रूस के साथ भारत के संबंध अच्छे हैं। इसको लेकर भी पश्चिम अलग रणनीति बना रहा है कि कैसे भारत को किसी अलग कोने में धकेला जाए। यही वजह है कि अमेरिका पाकिस्तान के एफ-16 को अपग्रेड करने के लिए पैसे दे रहा है। पाकिस्तान के आर्मी चीफ का अमेरिका ने जिस तरीके से स्वागत किया है, उससे पता चलता है कि उसका रुख किस तरफ है।

भारत ने चीन के खिलाफ इसलिए नहीं किया वोट

चीन के खिलाफ अमेरिका ने मानवाधिकारों के उल्लंघन का जो प्रस्ताव पेश किया था, भारत भी उसके पक्ष में है, लेकिन उसने वोट नहीं देकर खुद को इससे दूर रखा। यह भारत की अपनी कूटनीति है। ताकि कल के भारत के खिलाफ भी कश्मीर जैसे मसले पर कोई इस तरह का माहौल न बना सके। ऐसा नहीं है कि भारत को चीन से कोई डर था, बल्कि यह मौजूदा समय की जरूरत है। दुनिया के बदलते हालात के बीच खुद को नए तरीके से स्टैंड करने का भी वक्त है। आज भारत की सफलता से हर कोई चिढ़ रहा है। अमेरिका और पश्चिमी देशों को भारत का यह कदम निश्चित ही अच्छा नहीं लगा होगा। इसलिए ब्रिटेन से लेकर जर्मनी और अमेरिका तक की भाषा भारत के प्रति बदलने लगी है।  

रूस को हराने के लिए अमेरिका दे रहा यूक्रेन को हथियार

अमेरिका चाहता है कि रूस की युद्ध में पराजय हो। इसलिए वह करीब सात महीने से यूक्रेन को हथियार दे रहा है। इस दौरान अब तक करीब 15 से 17 बिलियन डॉलर के हथियार अमेरिका ने यूक्रेन को दे डाले हैं। इतना बिलियन डॉलर का हथियार तो भारत एक साल में भी नहीं खरीदता। हमने सिर्फ पांच बिलियन डॉलर का राफेल खरीद लिया था तो पूरी दुनिया में हल्ला हो गया था। जबकि अमेरिका ने जितने हथियार सात महीने में यूक्रेन को दे दिए, उसके मुकाबले पांच बिलियन डॉलर एक तिहाई ही है। इसी तरह अभी हमने अभी दो बिलियन डॉलर के करीब की कीमत का एयरक्रॉफ्ट कैरियर बनाया तो पूरी दुनिया में हल्ला हो गया। जबकि उसके ऊपर अभी हवाई जहाज भी तैनात नहीं है। जबकि यूक्रेन को अमेरिका 2014 से ही हथियार दे रहा है। रूस ने क्रीमिया पर इसी दौरान कब्जा किया था। तबसे वह यूक्रेन को हथियार दे रहा है। यूक्रेन उसका इस्तेमाल करके रूस के सामने खड़ा है।

जर्मनी समेत अन्य पश्चिमी देश हथियारों के लिए अमेरिका पर निर्भर

जर्मनी नाटो का सदस्य है। मगर जर्मनी और यूरोपीय यूनियन के अन्य सारे मेंबर्स अमेरिका के हथियारों के बल पर ही बात करते हैं। वैसे तो इन देशों को अपनी जीडीपी का कम से का चार फीसद तक हथियारों पर खर्च करना चाहिए, लेकिन वह सिर्फ 01 फीसद ही हथियारों पर इस्तेमाल करते हैं। क्योंकि उन्हें पता है कि बाकी हथियार अमेरिका देगा। वह सभी अमेरिका के हथियारों के बल पर बात करते हैं। इसलिए कह सकते हैं कि वह सब बाकी पैसा लगाकर अपनी आर्थिक स्थिति सुधार रहे हैं। वह भी अमेरिका के बलबूते पर। यह अमेरिका को भी पता है। रक्षा उपकरण बनाने की भी लिमिट है। इसमें वक्त भी लगता है। जर्मनी अभी बैकफुट पर है, इसलिए वह पाकिस्तान के साथ खड़ा दिख रहा है। कश्मीर में मानवाधिकार पर आवाज उठा रहा है। जर्मनी को पता है कि भारत की जो विश्व में छवि है और हर कोई उसे सुन रहा है, इसलिए उसे(भारत को) झटका देना है। अमेरिका इसके लिए परामर्श भी दे रहा है।  

रूस से अच्छे संबंध रखना हर हाल में जरूरी

भारत रूस के साथ अच्छे संबंध इसलिए रख रहा है कि हमें चीन से खतरा है। यदि हम अमेरिका के साथ दोस्ती रखते हैं, जिसका रूस दुश्मन है तो उसमें नुकसान भारत का है। क्योंकि उससे हमें सिर्फ इंडियन ओशियन में और क्वाड में अमेरिका फायदा दे सकता है। मगर पूर्वी लद्दाख यानि जिसको हम वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) बोलते हैं, उसके ऊपर तो खुद भारत को लड़ना है। वहां अमेरिका लड़ने नहीं आएगा। अगर वह भारत को हथियार देता भी है तो हमें उसे समझने तक में ही लड़ाई हो खत्म हो जाएगी। जैसे यूक्रेन को अमेरिका हथियार दे रहा, लेकिन लड़ रहा है यूक्रेन। यूक्रेनी सैनिक ही मारे जा रहे हैं। इसलिए कोई हथियार देता भी है तो लड़ना भारत को ही है। हमें चीन और पाकिस्तान दोनों के साथ लड़ना है। इस लड़ाई में हमारा साथ कोई नहीं देगा।

अभी तो भारत का फायदा इसमें है कि उसे तेल और गैस मिलता रहे। रूस 25 फीसद सस्ते में भारत को दे रहा है। इससे हम महंगाई को नियंत्रित करने का प्रयास तो कर पा रहे हैं। क्योंकि हमारे यहां महंगाई तो है, लेकिन वह बेकाबू नहीं है। हमारा श्रीलंका, पाकिस्तान और बंग्लादेश जैसा हाल नहीं है।

रूस से अच्छे संबंध रखने से भारत खुद होगा मजबूत

यदि रूस से भारत अच्छे संबंध बनाए रखता है तो वह खुद मजबूत होता रहेगा। क्योंकि हमें यह मानकर चलना है कि चीन या पाकिस्तान किसी के साथ हमारी लड़ाई हुई तो यह हमें ही लड़ना है। वैसे तो भारत के पास रूस के पुराने हथियार 50 फीसद हैं। मगर आज रूस ऐसी स्थिति में नहीं है कि वह हमें उसका कोई मेंटिनेंस पार्ट या अपग्रेड करने के लिए कुछ दे सके। इसलिए लड़ाई खुद भारत को लड़नी होगी। यदि ऐसे में यूक्रेन की तरह सात-आठ महीने लड़ाई चली तो भारत का दिवाला निकल जाएगा। खैर तब चीन को भी भारी नुकसान होगा। यह बात चीन को भी पता है। इसलिए वह भारत से पंगा नहीं लेगा। मगर भारत को उसी हिसाब से अपनी तैयारी करनी है।

चीन और भारत को पस्त करने के लिए पाकिस्तान की ओर झुका अमेरिका

मौजूदा हालात में अब अमेरिका को लग रहा है कि यदि वह पाकिस्तान से दोस्ती रखता है तो वह चीन के खिलाफ दखलंदाजी कर सकता है। क्योंकि पाकिस्तान चीन का दोस्त है, उसके बारे में सबकुछ जानता है। पाकिस्तान का इस वक्त दिवाला निकल चुका है, उसे मदद की जरूरत है। वहीं चीन का दिवाला भले नहीं निकला हो, लेकिन वह पाकिस्तान को बहुत मदद करने की स्थिति में नहीं है। ऐसे में बचाव करने के लिए सिर्फ अमेरिका ही पाकिस्तान की आर्थिक मदद कर सकता है। चीन के नागिरकों को भी पाकिस्तान में खतरा है। इसलिए चीन पाकिस्तान की ज्यादा मदद नहीं कर रहा। अमेरिका को पाकिस्तान की मदद करने में दो फायदे हैं कि वह भारत पर भी पाकिस्तान के जरिये मानसिक दबाव बना सकता है कि भारत रूस की तरफ ज्यादा न झुके और उसके जरिये चीन की नब्ज भी पकड़ सकता है।

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