क्यों हर 10 साल में रिन्यू होती है आरक्षण की तारीख

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क्यों हर 10 साल में रिन्यू होती है आरक्षण की तारीख

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वैसे तो आरक्षण की शुरुआत आजादी से पहले ही हो गई थी, लेकिन इसका दायरा बढ़ता गया। अब आर्थिक रूप से कमजोर गरीब सवर्णों को आरक्षण देने पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ चुका है। तमाम अटकलों और आशंकाओं पर विराम लग गया है लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने एक और महत्वपूर्ण बात कही है, जिसे गहराई से समझने की जरूरत है। जस्टिस बेला एम त्रिवेदी ने आरक्षण पर संविधान निर्माताओं की भावनाओं की याद दिलाई। उन्होंने कहा कि तब क्या सोचा गया था, जो आज 75 साल के बाद भी हासिल नहीं किया जा सका है। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण पर एक बड़ी लकीर खींचते हुए कहा है कि इस प्रणाली पर विचार करने की जरूरत है। SC ने साफ कहा कि कोटा सिस्टम हमेशा के लिए नहीं रह सकता, एक समयसीमा तय करने की जरूरत है। आइए समझते हैं कि जब देश में संविधान तैयार किया जा रहा था तो हमारे नीति निर्माताओं ने आरक्षण पर क्या-क्या बात की थी?आजादी से पहले शुरू हो गया था आरक्षण

आजादी मिलने से करीब 20 साल पहले ही अंग्रेज अछूत जातियों के लिए अलग से एक अनुसूची बना चुके थे। इसे अनुसूचित जातियां कहा गया। बाद में भारतीय संविधान में भी इसे जारी रखा गया। अंग्रेजों के देश छोड़ने से पहले ही संविधान सभा का गठन हो चुका था। आगे समितियां बनीं और बैठकों में चर्चा शुरू हुई। इस दौरान आरक्षण पर विस्तार से अलग-अलग सवाल उठे। समानता बनाम योग्यता का सवाल आया। पूछा गया कि क्या अंग्रेजों से आजादी मिलने के बाद भी आरक्षण की जरूरत है? इसका हकदार कौन है, आरक्षण जाति के आधार पर दिया जाए या फिर आर्थिक आधार पर? फिर एक बड़ा सवाल उठा आरक्षण कब तक रहेगा? इसी बात की तरफ सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस त्रिवेदी और जस्टिस पारदीवाला ने सोमवार को फैसला सुनाते हुए सबका ध्यान खींचा।आजादी के बाद आरक्षण की जरूरत क्या है?

गुलामी की जंजीरें टूट चुकी थीं, संविधान सभा में शामिल नीति निर्माताओं को लग रहा था कि जब अंग्रेज नहीं रहेंगे तो भारतीयों के बीच आरक्षण की जरूरत ही क्या होगी? बहस देख संविधान सभा ने सलाहकार समिति बनाई और उसने अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की सिफारिश कर दी। बहस तेज हुई मई 1949 में संविधान में आरक्षण की जरूरत पर जोर दिया गया। तब आरक्षण के समर्थन में सभा के सदस्य एस नागप्पा ने कहा था कि देश में आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक अल्पसंख्यक हैं। उनका प्रतिनिधित्व सुरक्षित करने के लिए आरक्षण होना चाहिए। उन्होंने आगे यह तर्क भी रखा, 'मैं आरक्षण मना करने के लिए तैयार हूं, लेकिन इसके लिए हरिजन परिवार को 10-20 एकड़ जमीन, बच्चों के लिए विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा मुफ्त में मिले। इसके साथ ही नागरिक विभागों या सैन्य विभागों में प्रमुख पदों का पांचवां हिस्सा दिया जाए।'

SC, ST और ओबीसी

बहस आगे बढ़ी, चर्चा होने लगी कि किसे पिछड़ा कहा जाएगा। परिभाषा क्या होगी? टीटी कृष्णामाचारी ने कहा, 'क्या मैं पूछ सकता हूं कि भारत के किन लोगों को पिछड़ा समुदाय कहा जाए।' SC और ST के लिए नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान बनाया गया लेकिन प्रस्ताव खारिज हो गया। डॉ. भीमराव आंबेडकर ने एससी, एसटी की जगह पिछड़ा वर्ग कहकर संबोधित किया। एए गुरुंग ने कहा, 'अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति को तो शामिल किया गया है लेकिन शैक्षणिक और आर्थिक रूप से पिछड़ों को नहीं।' केएम मुंशी ने कहा, 'पिछड़ा वर्ग शब्द को समुदाय विशेष तक सीमित नहीं रखना चाहिए।'

आर्थिक आधार पर आरक्षण को ना

लंबी चर्चा के बाद यह निष्कर्ष निकला कि आर्थिक आधार पर आरक्षण देना ठीक नहीं होगा। यह छुआछूत जैसे जातिगत भेदभाव को मिटाने का जरिया है। ऐसे में संविधान में जातिगत आरक्षण की व्यवस्था की गई और SC-ST को आरक्षण दिया गया। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति में कौन होगा, इसकी परिभाषा संविधान के अनुच्छेद 341 और 342 में दी गई है। संविधान का अनुच्छेद 16 (4) नागरिकों के पिछड़े वर्गों के हित में आरक्षण की अनुमति देता है और अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के बारे में विशेष रूप से उल्लेख नहीं करता है।संविधान में यह जरूर लिखा है कि राष्ट्रपति, राज्यपाल के परामर्श पर उन जातियों, जनजातियों को लेकर फैसला करेंगे, जिन्हें अनुसूचित जातियां समझा जाएगा। अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए यही बात कही गई है। इससे साफ है कि संविधान सभा में SC-ST की परिभाषा तय नहीं की जा सकी थी।


जाति के आधार पर आरक्षण के लाभ के विरोध में आवाजें उठीं। कहा गया कि अल्पसंख्यकों का वर्गीकरण आर्थिक आधार पर होना चाहिए, जिसका आधार ऐसी नौकरी हो जिससे जीविका चलाने के लिए पर्याप्त कमाई नहीं होती है। मांग की गई कि अनुसूचित जाति के स्थान पर भूमिहीन मजदूर, मोची या ऐसे लोगों को विशेष आरक्षण दिया जाना चाहिए जिनकी कमाई जीने के लिए पर्याप्त नहीं है।आखिर में तय हुआ कि...

धर्मशास्त्री जेरोम डिसूजा ने तर्क रखा कि किसी व्यक्ति की जाति या धर्म को आरक्षण के लिए विशेष आधार नहीं माना जाना चाहिए। किसी को इसलिए सहायता दी जानी चाहिए क्योंकि वह गरीब है। आखिर में जाति के सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण तय किया गया।डॉ. आंबेडकर ने महत्वपूर्ण बात कही, '150 साल तक मजबूती से कायम रही अंग्रेजी हुकूमत में भारत के सवर्ण अपनी क्षमताओं का उपयोग नहीं कर पा रहे थे क्योंकि प्रतिनिधित्व नहीं मिला। ऐसे में भारत के दलित समाज की स्थिति का आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है।' बहस के बाद सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग को आरक्षण की बात पर सहमति बनी। अनुच्छेद 15 (4) और 15 (5) में सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों या अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए विशेष उपबंध की व्यवस्था की गई है लेकिन कहीं भी आर्थिक शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया है। यही वजह है कि सवर्णों को आरक्षण देने के लिए सरकार को आर्थिक रूप से कमजोर शब्द जोड़ने के लिए संविधान संशोधन की जरूरत पड़ी।


आरक्षण तो ठीक लेकिन कब तक?

आखिर में बड़ा सवाल था कि आरक्षण कब तक रहेगा? संविधान सभा के सदस्य हृदयनाथ कुंजरू ने कहा था कि संविधान के लागू होने के बाद 10 साल तक आरक्षण के प्रावधान में कोई बाधा नहीं होगी लेकिन ये प्रावधान अनिश्चितकाल के लिए लागू नहीं रहना चाहिए। इस प्रावधान की समय-समय पर जांच होनी चाहिए कि वास्तव में पिछड़े तबकों की स्थिति में बदलाव आ रहा है या नहीं। ठाकुर दास भार्गव ने भी कहा था कि इस तरह के प्रावधान को 10 साल से ज्यादा न रखा जाए, बहुत जरूरत पड़े तो ही बढ़ाया जाए। निजामुद्दीन अहमद ने कहा कि नहीं, इस सिस्टम को अनिश्चितकाल रखना चाहिए, लेकिन यह प्रस्ताव पास नहीं हुआ।



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